राष्ट्र निर्माण का पल


राष्ट्र निर्माण का पल

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मौका बीत गया था, चाय ठंढी हो गयी थी,
उससे सवाल का नहीं, इज़हार का भी नहीं,
दूर किसी बेहद राजनीतिक खिड़की पर,
नागरिकता के इम्तिहान का भी नहीं,
अपने औरत होने को पूरी तरह मुक्कम्मल करने का,
आगोश में उसकी, पनाह में भी,
मेरे लिए वही राष्ट्र निर्माण का पल था,
और लिखे जा रहे थे, राष्ट्र निर्माण के गीत,
और कहा जा रहा था, कि गुज़र गया था,
वो पल,
जब देश हो सकता था कुछ और,
और स्टील की तमाम फैक्ट्रियों में जंग लगी थी,
इस्पात की भी,
और गोष्ठियां थीं अनंत,
और चाहतें थी लोगों की,
कि सिर्फ चाय गर्म हो, कप नहीं,
मौका बीत गया था, चाय ठंढी हो गयी थी,
जो फूल वह बुन रही थी,
उसके लिए, उस स्वेटर पर,
जो फूल वह काढ रही थी, उसके लिए हजारों रुमालों पर,
जो फूल वह रंग रही थी, उसके लिए हजारों दीवारों पर,
हर दीवार पर उसके लिए, देखते हुए उसे हर कहीं,
बदल गया था, रंग उसका,
सिर्फ डंठल तक रंगी थी, उसने,
हरे से,
अब पंखुड़ियाँ भी हरी हो गयीं थीं,
उसकी हथेलियों पर हरे गुलाब थे,
स्वेटर पर उसके हरे गुलाब थे,
मानो धरती का सारा हरा छा गया हो,
पंखुड़ियों पर,
मानो धरती में सिर्फ एक रंग बचा हो हरा,
इस उपद्रव के बाद,
ऐसा हरा,
जो ढकें होता है,
खिलने से पहले पंखुड़ियों को,
पत्तियों का हरा,
नायाब रंग ढूँढने का मौका बीत गया था,
चाय का रंग भी बदलता रहा था,
पत्तियों के मुताबिक,
मौका बीतता रहा था,
चाय ठंढी गरम होती रही थी।
मौका बीत गया था,
लपककर खोला था, लिफाफा उसने,
कि जाने कौन सा रंग भेजा हो उसने,
और हरे का ही हल्का रंग,
अपनी समस्त अबीरी खुशबू में,
भिगो गया था उसे,
और जैसे पत्थर भेद कर निकले,
पानी का सोता,
प्रचंड वेग से उठे, उत्ताल हवा,
वैसे प्यार हो गया था, उसे उससे,
लम्हे भर का नहीं, गहराता,
लहराता, मंडराता प्यार,
और मौका बीतता रहा था,
चाय ठंढी और गरम होती रही थी।

–पंखुरी सिन्हा
कनाडा

Here the common man sleeping million inhabitants of food waste

CPWD Mantinens MP's for the entire department works just sleeping crore in a year must be spent on Mantinens of their flats and bungalows which have masses of money, Yaha a common man can not afford to eat and among these, executives earn millions of rupees on the pretext of it is wasted